यूपी के उच्च शिक्षा विभाग के अधीन आने वाले राज्य विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के शोध (पीएचडी) कराने के नियम अलग-अलग हैं। किसी विश्वविद्यालय ने स्ववित्तपोषित महाविद्यालयों के शिक्षकों को भी शोध कराने का अधिकार दे दिया है तो किसी ने अनुदानित महाविद्यालयों के स्नातक स्तर के विभागों के शिक्षकों को इससे वंचित कर रखा है। अब शासन ने एक समान नियम बनाने की पहल की है। एक उच्च स्तरीय कमेटी इस मुद्दे पर विचार कर रही है। शोध के संबंध में यह स्थिति तब है जब विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने एक समान नियम बना रखे हैं।
इन नियमों को स्वीकर करते हुए प्रदेश सरकार ने वर्ष 2018 में शासनादेश भी जारी कर दिया था। बावजूद इसके वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय जौनपुर ने स्ववित्तपोषित महाविद्यालयों के शिक्षकों को भी शोध कराने का अधिकार दे रखा है तो प्रदेश के अन्य विश्वविद्यालयों में स्नातक स्तर (यूजी) के विभागों के शिक्षकों को शोध कराने का अधिकार प्राप्त नहीं है। दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय और लखनऊ विश्वविद्यालय तो लंबी जद्दोजहद के बाद महाविद्यालयों के शिक्षकों को शोध कराने का अधिकार देने को राजी हुए थे।
नए सत्र 2021-22 से प्रदेश सरकार नई शिक्षा नीति लागू करने जा रही है। इसके तहत स्नातक अंतिम वर्ष में ही शोध कार्य कराया जाना है। इसके बाद प्रदेश सरकार ने महाविद्यालयों में शोध को बढ़ावा देने पर विचार कर अपनी संस्तुतियां देने के लिए बेसिक शिक्षा राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) डॉ. सतीश चंद्र द्विवेदी की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया। लखनऊ विश्वविद्यालय संबद्ध महाविद्यालय शिक्षक संघ (लुआक्टा) ने प्रदेश सरकार और यूजीसी को पत्र भेजकर शोध के संबंध में सभी विश्वविद्यालयों में एक समान नीति लागू कराए जाने की मांग की है। लुआक्टा के अध्यक्ष डॉ. मनोज पांडेय व महामंत्री डॉ. अंशू केडिया का कहना है कि प्रदेश के 80 फीसदी छात्र महाविद्यालयों में अध्ययन करते हैं तो इसके शिक्षकों को शोध का अधिकार न दिया जाना छात्रों के साथ अन्याय है।
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