
चार देशों की एक जैसी क़िस्से: विदेशों द्वारा लिखी गई बर्बादी की स्क्रिप्ट
15 अगस्त 2021, 9 अप्रैल 2022, 14 जुलाई 2022, और 5 अगस्त 2024 ये केवल तिथियाँ नहीं हैं, बल्कि इन पर चार देशों के राजनीतिक और सामाजिक ताने-बाने में आए बड़े परिवर्तनों के संकेतक हैं। ये दिन एक ऐसे गहरे संकट को दर्शाते हैं जिसने अफगानिस्तान, पाकिस्तान, श्रीलंका, और बांग्लादेश को हिला कर रख दिया। इन घटनाओं के पीछे की स्क्रिप्ट एक जैसी है एक खतरनाक अस्थिरता की कहानी जो सत्ता की हिलती ज़मीन पर आधारित है।
बांग्लादेश की 5 अगस्त 2024 की घटना को लें, जब आरक्षण के खिलाफ एक आंदोलन ने हिंसात्मक मोड़ ले लिया। स्वतंत्रता सेनानियों के वंशजों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था को समाप्त करने की मांग ने ढाका की सड़कों पर उबाल ला दिया। 4 अगस्त को शुरू हुआ प्रदर्शन अगले दिन इतनी उग्रता पर पहुंच गया कि प्रदर्शनकारी प्रधानमंत्री शेख हसीना के आवास में घुस गए। इसके परिणामस्वरूप 300 से ज्यादा मौतें और सैकड़ों घायल हुए। बेकाबू हालात ने हसीना को इस्तीफा देने और बांग्लादेश छोड़ने पर मजबूर कर दिया। उन्होंने भारत में शरण ली और वहां एक अंतरिम सरकार, जिसकी अध्यक्षता प्रोफेसर मोहम्मद यूनुस कर रहे हैं, ने कार्यभार संभाला। हसीना का 15 साल का शासन अचानक एक आंतरिक उथल-पुथल के कारण समाप्त हो गया।
अमेरिका का इस संकट में एक दिलचस्प भूमिका रही। बांग्लादेश में एक एयरबेस की मांग को लेकर अमेरिका ने शेख हसीना पर दबाव डाला, जिसे हसीना ने ठुकरा दिया। इसके बाद अमेरिका ने हसीना को चुनाव हारने की धमकी दी, लेकिन हसीना ने पांचवीं बार प्रधानमंत्री बनकर अमेरिकी उम्मीदों को ध्वस्त कर दिया। अमेरिका ने उनकी जीत पर सवाल उठाने के लिए विपक्ष को प्रेरित किया, और जब छात्रों का आंदोलन शुरू हुआ, अमेरिका ने इसके लिए फंडिंग की। हसीना ने सार्वजनिक तौर पर अमेरिका पर आरोप लगाया कि वह बांग्लादेश को ईसाई बनाने की साजिश कर रहा है, हालांकि उन्होंने सीधे तौर पर अमेरिका का नाम नहीं लिया।
अब इसी पैटर्न को अफगानिस्तान में देखिए। 15 अगस्त 2021 को तालिबान ने काबुल पर कब्जा कर लिया। यह स्थिति अमेरिका की 20 साल की सैन्य उपस्थिति के बाद उत्पन्न हुई, जब अमेरिका ने अचानक अपनी सेना को वापस बुला लिया। तालिबान की वापसी ने अफगानिस्तान की राजनीति में एक नए युग की शुरुआत की। राष्ट्रपति अशरफ गनी को देश छोड़कर भागना पड़ा, और अफगानिस्तान की सरकार और सेना तालिबान के सामने झुक गई। गनी ने काबुल छोड़ते वक्त अपनी पासपोर्ट तक नहीं ले पाने की स्थिति का सामना किया, और उन्होंने संयुक्त अरब अमीरात की ओर रुख किया।
अमेरिका ने 2001 में तालिबान के समर्थन करने वाले अल-कायदा के खिलाफ सैन्य कार्रवाई शुरू की थी। इस दौरान, अमेरिका और उसके सहयोगियों ने अफगान सुरक्षा बलों को प्रशिक्षण और वित्तीय सहायता दी। लेकिन 2021 में अमेरिकी सैनिकों की वापसी ने तालिबान को फिर से सत्ता में लाने का मौका दिया, जिसने काबुल पर कब्जा कर लिया।
पाकिस्तान की कहानी भी इसी प्रकार की है। अमेरिका ने इमरान खान की सरकार को गिराने के लिए साजिश की। रूस की यूक्रेन पर आक्रमण की घटना के समय इमरान खान रूस में थे, और अमेरिका इस यात्रा से नाराज था। अमेरिका ने पाकिस्तान की संसद में इमरान खान के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने के लिए दबाव डाला। इमरान खान की सरकार 2022 में गिर गई। इमरान ने कई बार कहा कि अमेरिका ने उन्हें सत्ता से हटाने के लिए सेना पर दबाव डाला। अगस्त 2023 में लीक हुए एक दस्तावेज़ में यह खुलासा हुआ कि अमेरिका ने पाकिस्तानी राजदूत से इमरान खान को सत्ता से हटाने के लिए कहा था और पाकिस्तान को अलग-थलग करने की धमकी दी थी।
श्रीलंका की कहानी भी अलग नहीं है। 2022 में, श्रीलंका के भीतर गहराते आर्थिक संकट ने हिंसात्मक प्रदर्शन को जन्म दिया। श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार घटकर 2.1 बिलियन डॉलर रह गया था, जिससे बुनियादी आवश्यकताओं की कमी होने लगी। जनता ने राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे के खिलाफ प्रदर्शन किया और राष्ट्रपति भवन पर कब्जा कर लिया। हालांकि, राजपक्षे ने इस स्थिति से पहले ही देश छोड़ दिया था। पूर्व राष्ट्रपति ने अपनी किताब ‘द कॉन्सपिरेसी’ में अमेरिका को श्रीलंका की आर्थिक संकट के लिए जिम्मेदार ठहराया, और आरोप लगाया कि अमेरिका ने श्रीलंका को चीन के कर्ज के जाल में फंसाने की कोशिश की।
इन चार देशों की घटनाएँ एक समान संकट की ओर इशारा करती हैं, जो कि अस्थिरता, राजनीतिक परिवर्तन, और सामाजिक अशांति का संकेतक है। क्या यह सब कुछ महज संयोग है या इसके पीछे कोई योजना है? क्या इन घटनाओं के पीछे कोई अंतर्राष्ट्रीय ताकत की साजिश है, जो इन देशों के भविष्य को अपने हाथ में लेना चाहती है? ये सवाल न केवल इन देशों की वर्तमान स्थिति को समझने के लिए महत्वपूर्ण हैं, बल्कि यह भी जानने के लिए कि आगे की राह क्या होगी। इन देशों के लिए अब सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि वे किस दिशा में आगे बढ़ेंगे और क्या वे इस संकट से उबरकर एक स्थिर भविष्य की ओर बढ़ पाएंगे।
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