बिना शिक्षक विश्वगुरु बनने का सपना, प्राथमिकताएं केवल तय न हों बल्कि उनपर अमल भी जरूरी
राजीव सचान : हर नया वर्ष नई आशाएं लेकर आता है। इससे अच्छा और कुछ नहीं कि घरेलू और बाहरी मोर्चे पर अनेक समस्याओं के बीच देश में यह भाव है कि भारत आने वाले वर्ष में द्रुत गति से प्रगति के पथ पर बढ़ता रहेगा। इसी भाव के तहत कई प्रतिष्ठित व्यक्तियों की ओर से यह कहा जाता है कि भारत विश्वगुरु बनने की दिशा में बढ़ रहा है। भिन्न-भिन्न लोगों के लिए विश्वगुरु का मंतव्य अलग-अलग हो सकता है, लेकिन इस साझा राय पर शायद ही किसी को आपत्ति हो कि भारत प्रगति के पथ पर बढ़ने के साथ विश्व की समस्याओं के समाधान में सहायक बनेगा और उसे राह भी दिखाएगा। पता नहीं यह कब होगा, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि देश के आगे बढ़ने का एक रास्ता हमारे विद्यालयों और विश्ववद्यालयों से होकर निकलता है।
देश को आगे ले जाना है तो शिक्षा में सुधार सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। यह प्राथमिकता केवल तय ही नहीं की जानी चाहिए, बल्कि धरातल पर अमल होती दिखनी भी चाहिए। शिक्षा ही किसी देश की भावी पीढ़ी को उन मूल्यों से लैस करती है, जो उसकी चतुर्दिक प्रगति में सहायक बनती है। बिना शिक्षक शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती। एक ऐसे समय जब देश को विश्वगुरु बनाने की बातें हो रही हैं, तब यह देखना दुखद है कि देश के केंद्रीय विश्वविद्यालयों और आइआइटी एवं आइआइएम में शिक्षकों के 11 हजार से अधिक पद रिक्त हैं।
संसद के शीतकालीन सत्र में बताया गया कि 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में स्वीकृत 18,956 पदों में से प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और असिस्टेंट प्रोफेसर के कुल 6180 पद खाली हैं। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों में स्वीकृत 11,170 पदों में से 4,502 पद खाली हैं। इसी तरह भारतीय प्रबंधन संस्थानों में 1,566 पदों में से 493 पद खाली पड़े हुए हैं। हालांकि केंद्रीय शिक्षा मंत्री की ओर से यह दावा किया गया कि एक अभियान के तहत रिक्त पदों को भरने का काम किया जा रहा है, लेकिन यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि यह अभियान उतना गतिशील नहीं, जितना होना चाहिए, क्योंकि इसी साल जुलाई में संसद में ही यह बताया गया था कि देश के 43 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के 6,549 पद रिक्त हैं। इनमें से कुछ विश्वविद्यालय ऐसे थे, जिनमें शिक्षकों के सैकड़ों पद खाली थे। अब क्या स्थिति है, पता नहीं, लेकिन यह किसी से छिपा नहीं कि कई बार कुलपतियों से लेकर शिक्षकों की नियुक्तियों में आवश्यकता से अधिक समय लगता है। कई बार अनावश्यक देरी के कारणों के बारे में कुछ पता भी नहीं चलता।
जब केंद्रीय विश्वविद्यालयों और आइआइटी एवं आइआइएम में शिक्षकों के तमाम पद रिक्त हैं, तब यह अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि राज्यों के विश्वविद्लाययों और तकनीकी एवं मेडिकल कालेजों में शिक्षकों के रिक्त पदों की क्या स्थिति होगी? दुर्भाग्य से स्थिति अनुमान से अधिक खराब है। कई विश्वविद्यालय ऐसे हैं, जिनमें शिक्षकों के तमाम पद रिक्त होने के बाद भी वर्षों और किसी-किसी मामले में तो दशकों से भर्तियां नहीं हुई हैं। इसके चलते कुछ विभाग अनुबंध पर रखे गए शिक्षकों के सहारे चल रहे हैं।
इसका अनुमान भी सहज ही लगाया जा सकता है कि जिन विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के दर्जनों पद वर्षों से रिक्त हों, वहां पठन-पाठन की क्या स्थिति होगी? इस पर हैरानी नहीं कि शिक्षकों की कमी के चलते देश के कुछ विश्वविद्यालय तीन साल की पढ़ाई के बाद दी जाने वाली डिग्री चार सालों के बाद भी नहीं दे पा रहे हैं। इसी तरह कुछ विश्वविद्यालय के छात्र पांच साल बाद भी अपनी ग्रेजुएशन की डिग्री पाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
समस्या केवल विश्वविद्यालयों के स्तर पर ही शिक्षकों की कमी की नहीं है। उनकी तरह प्राइमरी और माध्यमिक विद्यालयों में भी बड़ी संख्या में शिक्षकों के पद खाली पड़े हुए हैं। यह सही है कि कोविड महामारी ने अन्य क्षेत्रों की तरह शिक्षा के क्षेत्र पर भी असर डाला है और यह कहा जा सकता है कि उसके चलते कहीं न कहीं शिक्षकों की भर्ती भी प्रभावित हुई है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि बीते तीन वर्षों के दौरान विभिन्न राज्यों के चुनाव समेत अन्य कई काम समय पर होते रहे। प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल भी किस तरह बड़ी संख्या में शिक्षकों की कमी का सामना कर रहे हैं, इसकी जानकारी पिछले वर्ष संसद में दी गई थी। इस जानकारी के अनुसार देश भर के सरकारी विद्यालयों में शिक्षकों के 10 लाख 60 हजार 139 पद खाली पड़े थे। कह नहीं सकते कि बीते एक वर्ष में इनमें से कितने भरे जा चुके हैं, लेकिन एक ऐसे समय जब नई शिक्षा नीति पर अमल किया जा रहा है, तब इसका कोई औचित्य नहीं कि प्राथमिक विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक शिक्षकों की कमी का सामना करते रहें।
जैसे बेहतर शिक्षा के लिए पर्याप्त शिक्षक आवश्यक हैं, वैसे ही पाठ्यक्रम की गुणवत्ता भी। यह बार-बार सुनने को मिलता है कि हमें गलत इतिहास पढ़ाया गया है, लेकिन इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं कि क्या अब ऐसा इतिहास नहीं पढ़ाया जा रहा है? समझना कठिन है कि ऐसे उपाय क्यों नहीं किए जा रहे हैं, जिससे भावी पीढ़ी को गलत इतिहास न पढ़ाया जाए। क्या यह विचित्र नहीं कि मोदी सरकार के साढ़े आठ साल और चार शिक्षा मंत्रियों के बाद भी इतिहास के पाठ्यक्रम में ऐसे संशोधन नहीं किए जा सके हैं, जिससे छात्रों को गलत इतिहास पढ़ाने की शिकायत दूर हो सके? चूंकि ऐसी शिकायतों का समाधान नहीं हो रहा है, इसलिए इस दावे पर संदेह होता है कि भारत विश्वगुरु बनने की राह पर है।
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