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मंगलवार, 20 अगस्त 2024

लेटरल एंट्री पर सरकार का यू-टर्न: प्रशासनिक सुधार या राजनीतिक मजबूरी?

लेटरल एंट्री के आईएएस अफसरों के चयन का विरोध तो होना ही था.

 लेटरल एंट्री पर सरकार का यू-टर्न: प्रशासनिक सुधार या राजनीतिक मजबूरी?


केंद्र सरकार ने हाल ही में लेटरल एंट्री को लेकर जो यू-टर्न लिया है, वह एक गंभीर राजनीतिक और प्रशासनिक मुद्दे को उजागर करता है। लेटरल एंट्री, यानी सिविल सर्विस के बाहर से विशेषज्ञों को सरकारी नौकरियों में लाना, एक महत्वपूर्ण विचार था जो विशेष रूप से तब सामने आया जब सरकार ने देखा कि कुछ महत्वपूर्ण पदों के लिए ऐसे लोगों की आवश्यकता है जिनके पास खास क्षेत्रों में अनुभव हो। यह एक ऐसा कदम था जिससे प्रशासनिक संरचना में विविधता और विशेषज्ञता लाने की उम्मीद की जा रही थी।

शुरुआत में, इस कदम का समर्थन कांग्रेस नेता शशि थरूर ने भी किया था, जिन्होंने इसे देश की आवश्यकता बताया था। उनका मानना था कि यह फैसला प्रशासनिक तंत्र को मजबूत करने और विशेष क्षेत्रों में सुधार लाने के लिए आवश्यक था। लेकिन सरकार ने इस मुद्दे पर अपनी स्थिति जल्दी ही बदल दी, जिससे यह सवाल उठता है कि क्या केंद्र सरकार अपने पहले के कार्यकाल की तुलना में अब कमजोर महसूस कर रही है।

लेटरल एंट्री का उद्देश्य था कि विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों को सरकारी पदों पर नियुक्त किया जाए ताकि उनके अनुभव और कौशल का फायदा उठाया जा सके। यह विचार इस तथ्य पर आधारित था कि कुछ खास क्षेत्रों में सिविल सर्विस के अधिकारियों का अनुभव सीमित हो सकता है। उदाहरण के लिए, बजट के तकनीकी पहलुओं, स्पेस रिसर्च, या अंतर्राष्ट्रीय व्यापार जैसे क्षेत्रों में एक विशेषज्ञ का ज्ञान और अनुभव अधिक प्रभावी हो सकता है।

भूतकाल में भी इस तरह के उदाहरण मौजूद हैं जहां सिविल सर्विस के बाहर के लोगों को प्रशासन में शामिल किया गया है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पूर्व वित्त सचिव मोंटेक सिंह अहलुवालिया जैसे नाम इसका उदाहरण हैं। इन लोगों ने अपनी विशिष्टताओं के आधार पर महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया और अपने क्षेत्रों में उल्लेखनीय योगदान दिया। हालांकि, जब यूपीएससी ने सीनियर आईएएस अफसरों के रैंक वाले पदों के लिए लेटरल एंट्री के तहत विज्ञापन जारी किया, तो इसका तीव्र विरोध शुरू हो गया।

बीजेपी के विरोधी दल ही नहीं, बल्कि उसके सहयोगी दल भी इस निर्णय के खिलाफ हो गए। इसके परिणामस्वरूप, सरकार ने बहुत जल्दी इस विज्ञापन को वापस ले लिया। यह घटनाक्रम दर्शाता है कि सरकार ने विपक्ष के दबाव में आकर अपना निर्णय बदल दिया। इससे यह सवाल उठता है कि क्या सरकार अपने पहले के दो कार्यकालों की तुलना में अब ज्यादा संवेदनशील या कमजोर हो गई है।

इस बात की भी चर्चा हो रही है कि सरकार ने वक्फ बोर्ड संशोधन बिल को भी अचानक जेपीसी के पास भेज दिया, जबकि सहयोगी दलों का समर्थन उसके पक्ष में था। इसके अलावा, दलित सब कोटे के उच्चतम न्यायालय के फैसले को लागू न करने का निर्णय भी दबाव में लिया गया था। ये दोनों घटनाएं यह संकेत करती हैं कि सरकार अपने फैसलों को लेकर असमंजस में है और विपक्ष के दबाव में आ रही है।

विपक्ष की आलोचनाओं और विरोध के बावजूद, सरकार ने पहले कई मुद्दों पर सख्त रुख अपनाया था। किसानों का दिल्ली में महीनों तक धरना और शाहीन बाग का आंदोलन इसके उदाहरण हैं, जब सरकार ने अपनी स्थिति नहीं बदली। सीएए कानून को लेकर भी सरकार ने कुछ दिनों के लिए उसे टालने का निर्णय लिया, लेकिन कानून को वापस नहीं लिया।

लेटरल एंट्री पर असहमति का मुख्य कारण यह था कि इसमें आरक्षण का प्रावधान नहीं था। यह मुद्दा विशेष रूप से उन दलों के लिए महत्वपूर्ण था जो आरक्षण को लेकर संवेदनशील हैं। सरकार ने अगर विपक्ष के दुष्प्रचार से बचने के लिए लेटरल एंट्री में आरक्षण की व्यवस्था की होती, तो शायद स्थिति अलग होती।

यह भी संभव है कि सरकार जानबूझकर विवादित मुद्दों को लटकाने की रणनीति अपना रही हो, ताकि जनता का ध्यान भटका रहे। जैसे राम मंदिर का निर्माण, जो उत्तर प्रदेश में एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, सरकार ने इसे मुद्दे को लटकाकर रखा है ताकि चुनावों में फायदा उठाया जा सके। यह भी हो सकता है कि सरकार का विश्वास चुनावों में अपेक्षित सफलता न मिलने के कारण हिला हो।

बीजेपी का मीडिया सेल और पार्टी के प्रवक्ता सरकार की नीतियों और फैसलों को प्रभावी ढंग से जनता तक पहुंचाने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। इससे यह सवाल उठता है कि क्या सरकार के पास सही ढंग से संवाद स्थापित करने की कमी है। नए वक्ताओं की फौज जैसे निशिकांत दूबे और अनुराग ठाकुर, जिन्होंने संसद में प्रभावी ढंग से विपक्ष के सवालों का जवाब दिया है, के बावजूद सरकार को अपनी स्थिति मजबूत करने में कठिनाई हो रही है।

यह भी हो सकता है कि सरकार कुछ मुद्दों को जानबूझकर विवादित बनाए रख रही हो, ताकि जनता की याददाश्त कमजोर हो जाए और वे समस्याओं को जल्दी भूल जाएं। इस रणनीति के तहत सरकार मुद्दों को तब तक लटकाए रख सकती है जब तक जनता की चिंताओं का ध्यान भटक नहीं जाता।

अंततः, यह स्पष्ट है कि सरकार को अपने फैसलों और नीतियों को लेकर अधिक सतर्क और संवेदनशील रहने की आवश्यकता है। विपक्ष के दबाव का सामना करने के लिए सरकार को अपने तर्क और दृष्टिकोण को मजबूत बनाना होगा। इससे न केवल उनकी नीतियों की वैधता साबित होगी, बल्कि जनता के बीच विश्वास भी बनाए रखने में मदद मिलेगी। यह भी जरूरी है कि सरकार अपनी रणनीतियों और निर्णयों को लेकर स्पष्टता बनाए रखे और जनता के सामने अपनी दृष्टि को स्पष्ट रूप से पेश करे।

समय आ गया है कि सरकार अपनी रणनीतियों और नीतियों की समीक्षा करें और यह सुनिश्चित करें कि वे न केवल राजनीतिक दृष्टिकोण से सही हों, बल्कि प्रशासनिक दृष्टिकोण से भी प्रभावी हों। यह कदम न केवल सरकार की स्थिति को मजबूत करेगा, बल्कि देश के विकास और समृद्धि में भी महत्वपूर्ण योगदान देगा।

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