
संघ की नई पहल वीएचपी के धर्म सम्मेलन से दलितों को भाजपा के पक्ष में लाने की कोशिश
देश की राजनीति में जातिगत राजनीति का दबदबा तेजी से बढ़ रहा है, और इस बदलाव को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पसंद नहीं कर रहा है। लोकसभा चुनाव के दौरान संघ ने भाजपा को सत्ता में लाने के लिए वीएचपी (विश्व हिंदू परिषद) की मदद से अयोध्या में राम मंदिर आंदोलन शुरू किया था। अब संघ ने फिर से वीएचपी को आगे किया है, और जल्द ही वीएचपी द्वारा धर्म सम्मेलन आयोजित करने की तैयारी चल रही है। हालांकि सम्मेलन का नाम धर्म सम्मेलन रखा गया है, इसका मुख्य उद्देश्य दलित परिवारों तक पहुंच बनाने और उन्हें आगामी चुनावों में भाजपा के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित करना है। यह रणनीति विपक्षी गठबंधन INDIA ब्लॉक से राजनीतिक रूप से निपटने की एक नई कोशिश प्रतीत होती है। चुनावों के दौरान विपक्ष ने एक नैरेटिव स्थापित किया था कि अगर भाजपा सत्ता में आई, तो संविधान को बदल कर आरक्षण को समाप्त कर देगी। यह मुद्दा चुनावी बहस का हिस्सा बना और चुनाव परिणाम इसके समर्थन में आए। लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने भी लगातार कहा कि वे संविधान और आरक्षण की व्यवस्था की हर कीमत पर रक्षा करेंगे। यह बयान उन्होंने केंद्र सरकार द्वारा लेटरल एंट्री के मामले में कदम पीछे खींचने के बाद दिया, जो दर्शाता है कि यह मुद्दा अब और भी आगे बढ़ेगा।
वीएचपी का धर्म सम्मेलन और केंद्र सरकार के हाल के फैसले यह संकेत देते हैं कि संघ और भाजपा विपक्ष की जातीय राजनीति से चिंतित हैं। लोकसभा चुनाव के नतीजे बताते हैं कि जातीय राजनीति के हावी होने के कारण भाजपा बहुमत से काफी दूर रह गई। उत्तर प्रदेश में राम मंदिर के निर्माण के बावजूद, भाजपा को 80 में से अधिकतर सीटें जीतनी चाहिए थीं। लेकिन भाजपा की सीटें 2019 के 62 से घटकर 33 पर पहुंच गईं, जबकि समाजवादी पार्टी ने पहली बार 37 सीटें जीतीं।भाजपा के लिए सबसे बड़ा नुकसान यह रहा कि अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षित 131 सीटों में से उसे सिर्फ 54 सीटें मिलीं, जबकि 2019 में यह संख्या 77 थी। बीएसपी ने पिछले चुनाव में 10 सीटें जीती थीं, लेकिन इस बार वह पूरी तरह से शून्य पर आ गई है। बीएसपी नेता मायावती पर भाजपा को मदद पहुंचाने के आरोप भी लगते रहे हैं।
ऐसा लगता है कि दलित समुदाय ने मायावती पर भाजपा के मददगार होने के आरोपों पर विश्वास कर लिया और वे समाजवादी पार्टी और कांग्रेस गठबंधन की ओर मुड़ गए। यूपी और उन क्षेत्रों में जहां वे निर्णायक भूमिका में थे, उन्होंने भाजपा के खिलाफ वोट दिया। यह स्थिति संघ और भाजपा को चिंतित कर रही है, और इसलिए धर्म सम्मेलन के माध्यम से दलितों तक पहुंचने और उनकी नाराजगी दूर करने की कोशिश की जा रही है। दिलचस्प बात यह है कि दलितों के लिए चलाए जा रहे अभियान को धर्म सम्मेलन का नाम दिया गया है। इसका कारण यह है कि संघ जाति की राजनीति को धर्म के सहारे ही करना चाहता है। अगर इस अभियान का नाम दलित सम्मेलन रखा गया होता, तो यह जातीय राजनीति के मुद्दे से जुड़ जाता। धर्म सम्मेलन का नाम देकर, संघ इसे हिंदू धर्म के संदर्भ में पेश करना चाहता है, जो राजनीतिक रूप से प्रभावी हो सकता है। धर्म सम्मेलन 15 दिनों तक चलेगा, जिसमें विश्व हिंदू परिषद देश भर में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के मोहल्लों और गांवों की झुग्गी बस्तियों में भोजन और धार्मिक प्रवचन का आयोजन करेगी। दिवाली से पहले इस अभियान के दौरान हिंदू समुदाय से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा की जाएगी। वीएचपी अध्यक्ष आलोक कुमार ने बताया कि यह अभियान समाज में धार्मिक जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से चलाया जा रहा है। उनका कहना है कि सत्संग लोगों के पास जाकर उन्हें धार्मिक शिक्षा देने की कोशिश की जाएगी, न कि लोगों को सत्संग के लिए आमंत्रित किया जाएगा।
बिहार में हुई जातिगत गणना को भाजपा ने पहले खारिज कर दिया था, लेकिन बाद में सफाई दी जाने लगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहली प्रतिक्रिया के बाद, 2023 के विधानसभा चुनावों के आखिरी दौर में अमित शाह ने जातीय गणना पर भाजपा की स्थिति स्पष्ट करने की कोशिश की। नरेंद्र मोदी का कहना रहा है कि देश में सिर्फ चार जातियां हैं - गरीब, किसान, महिलाएं और युवा। भाजपा के कार्यक्रमों और बजट में इन चार जातियों का जिक्र लगातार सुनने को मिला है। 2023 में छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों के दौरान, कांग्रेस के जातीय गणना कराने के मुद्दे पर अमित शाह ने कहा था, "हम राष्ट्रीय राजनीतिक दल हैं... वोटों की राजनीति नहीं करते हैं... सभी से चर्चा करके... जो उचित निर्णय होगा, उसे हम जरूर करेंगे।" जातीय गणना को लेकर अमित शाह ने सफाई भी दी थी कि भाजपा ने इसका विरोध नहीं किया है, लेकिन इस मुद्दे पर सोच-समझ कर निर्णय लेना आवश्यक है विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के जातीय गणना कराने के वादे से कोई फर्क नहीं पड़ा, और 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने इस मुद्दे को लेकर लगभग निश्चिंतता महसूस की। लेकिन चुनाव परिणामों ने भाजपा की नींद हराम कर रखी है। हाल के फैसले, जैसे लेटरल एंट्री का मामला और एससी-एसटी आरक्षण में सब-कोटा को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला, संघ और भाजपा के जातीय राजनीति से डर को स्पष्ट करते हैं।
संघ लोक सेवा आयोग की तरफ से 45 पदों पर लेटरल एंट्री के विवाद के बाद केंद्र सरकार ने विज्ञापन वापस ले लिया। केंद्रीय कार्मिक और प्रशिक्षण मंत्रालय ने यूपीएससी की चेयरपर्सन प्रीति सूदन को पत्र भेजकर लिखा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नजर में लेटरल एंट्री की प्रक्रिया संविधान में निहित समानता और न्याय के आदर्शों पर आधारित होनी चाहिए, विशेष रूप से आरक्षण के प्रावधानों को लेकर। केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी सामाजिक न्याय में विश्वास रखते हैं और लेटरल एंट्री को आरक्षण के सिद्धांतों के अधीन लाने का फैसला सामाजिक न्याय के प्रति प्रधानमंत्री मोदी की प्रतिबद्धता को दर्शाता है। सरकार द्वारा लेटरल एंट्री को लेकर कदम पीछे खींचने के बाद कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने सोशल मीडिया पर लिखा कि वे संविधान और आरक्षण की रक्षा करेंगे। उन्होंने भाजपा की लेटरल एंट्री जैसी योजनाओं को नाकाम करने की बात कही और 50 प्रतिशत आरक्षण सीमा को तोड़कर जातिगत गणना के आधार पर सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने की बात की। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी आरक्षण में सब-कोटा लागू करने का फैसला सुनाया था। अदालत के आदेश को लागू करने के संबंध में भाजपा के एससी-एसटी वर्ग के सांसदों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की थी। बाद में बताया गया कि प्रधानमंत्री ने सांसदों को आश्वासन दिया कि केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर फिलहाल कोई विचार नहीं कर रही है, और भाजपा के शासन वाले राज्यों में इसे लागू करने का कोई विचार नहीं है।
इस सबके बीच, एक सवाल उठता है कि क्या केंद्र सरकार ये फैसले राहुल गांधी के दबाव में ले रही है? राहुल गांधी ने लेटरल एंट्री को एंटी-नेशनल और सोशल जस्टिस की भावना के खिलाफ बताया था। यह स्थिति दर्शाती है कि जातीय राजनीति और सामाजिक न्याय के मुद्दे पर भाजपा और संघ की चिंताओं में वृद्धि हो रही है। यह स्पष्ट है कि संघ और भाजपा जातीय राजनीति के बढ़ते प्रभाव को नियंत्रित करने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं, चाहे वह धर्म सम्मेलन के माध्यम से हो या अन्य राजनीतिक रणनीतियों के जरिए। आने वाले दिनों में यह देखना होगा कि ये प्रयास कितने सफल होते हैं और क्या वे भाजपा के राजनीतिक लाभ को सुनिश्चित कर सकते हैं या नहीं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें